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विद्यालय या व्यावसायिक इकाइयाँ

Sukirti
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अक्तूबर ,नवम्बर का महीना आते ही छोटे बच्चों के अभिभावक अपने बच्चों के एडमिशन की की चिंता में डूब जाते हैं |आजकल पढाई इतनी महगी हो गई है कि एक माध्यम वर्गीय अभिवावक कि एक तिहाई आय तो उनकी फीस आदि में ही निकल जाती है |
अच्छे स्कूलों में एडमिशन की गारंटी देने वाले प्ले स्कूल भी अभिभावकों से मोटी फीस वसूल करते हैं | आजकल दो साल से थोड़ा बड़े होते ही
बच्चों को प्ले स्कूल भेज दिया जाता है ताकि ये स्कूल इन बच्चों को इतना तैयार कर दें की किसी भी बड़े व् नामी स्कूलों की प्रवेश परीक्षा में सफल हो जाएँ |

मेट्रो सिटीज में तो इन स्कूलों की एडमिशन फीस पचास हजार से शुरू हो कर एक लाख या उससे भी अधिक है | इसके अतिरिक्त हर माह फीस, ट्रांसपोर्ट आदि सब मिलाकर लगभग आठ से दस हजार तक प्रति माह फीस देनी पड़ती है |अभिभावक अपने खर्चों में कटौती करके अपने बच्चों का भविष्य उज्जवल करने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं |
अगस्त- सितम्बर में बड़े नामी पब्लिक स्कूल एडमिशन के लिए जब विज्ञापन देते हैं ,तो अभिभावकों में एडमिशन फार्म लेने की होड़ सी लग जाती है |लोग लम्बी लाइनों में घंटों खड़े होकर फार्म लेते है |लोग ज्यादातर सारे स्कूलों के ही फार्म खरीद कर भरते है [जो की ५०० से लेकर एक हजार तक के होते हैं ] ताकि अगर उनका बच्चा अगर एक स्कूल में प्रवेश न पा सके तो दुसरे में नहीं तो तीसरे ,चौथे, पांचवे ………….कही न कही तो प्रवेश पा ही जायेगा |

इसके बाद प्रवेश की प्रक्रिया शुरू होती है |सबसे पहले तो स्कूलों से प्रथम चरण के लिए कॉल आती है | उसमे बच्चों की प्रतिभा का आकलन किया जाता है |इसी सन्दर्भ में मुझे एक रोचक घटना याद आरही है |जब मेरे बेटे की प्रवेश प्रक्रिया के प्रथम चरण के लिए एक स्कूल से बुलाया गया ,तो मैं नियत समय पर सुबह नौ बजे वहां पहुच गई |लगभग दो घंटे बाद उसका नाम आया ,उस समय तक वह इतना थक चुका था की वह अन्दर जाने को तैयार ही नहीं था |पर जबरजस्ती उसे अन्दर भेजा गया |

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उसके बाद जिस बच्चे का नंबर था वो तीन साल या उससे थोडा बड़ा होगा |वो मासूम इन सारे कॉम्पटीशन से बेखबर अपनी मां की गोद में आराम से सो रहा था |उसकी मां व् पापा चिंता में डूबे उसे जगा रहे थे ऐसा लग रहा था मनो अगर वो नहीं जागा तो पता नहीं क्या हो जायेगा |
वैसे मै उस मां का डर बखूबी समझ रही थी ,क्योकि मै तो उसी परिस्थिति से गुजर रही थी |सच मानिये वहां बैठे सारे अभिभावक बहुत ही असहाय से लग रहे थे|

इसके बाद जैसे तैसे कही न कही उनका एडमिशन हो जाता है लेकिन खर्चे एडमिशन फीस तक ही सीमित नहीं होते |अब आती है किताबों , बैग
बोतल , ड्रेस ,पेंसिल आदि की बारी आती है|स्कूल की बुक शॉप में पहले से ही पूरा सेट तैयार रहता है |चाहे आप को जरुरत हो या नहीं सारा सेट लेना ही पड़ता है | पहले बड़े भाई या बहनों की या मित्रो की पुस्तके जो अच्छी हालत में होती थीं पुन्ह प्रयोग में ले ली जाती थी पर अब तो ये काफी पुरानी बात है ||
इन सब के अलावा हर महीने कोई न कोई खर्च स्कूल वाले बता ही देते हैं | पहले गुरुकुल में जब शिक्षा निशुल्क थी तो शिक्षक भी भगवन के तुल्य समझे जाते थे |आज शिक्षा के ब्यावासयी करण ने माध्यम वर्गीय व् निम्न वर्गीय आय के अभिभावकों की समस्याओं को तो बढाया ही है ,साथ ही शिक्षक ,शिक्षिकाओं व् विद्यालय के आदरभाव में भी कमी कर दी है |

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